मैं चाँद को निहार रही थी (Mein Chaand ko Nihar Rahi Thi) Story 2 Season 1| Dayri Ke Kisse

डायरी के किस्सों से चुना हुआ एक किस्सा, जिसे तराशा है मैंने अंतर्मन के बजूदों से.................... बैठी हुई एक सुध मैं चाँद को निहार रही थी, वही चाँद जिसे रोज ब रोज न जाने कितने लोगों ने निहारा होगा, वही चाँद जिसे कभी किसी ने सज कर, किसी ने ख्यालों में रहकर, और किसी ने प्यार में निहारा होगा उसी चाँद को आज मैं निहार रही थी....खिलता हुआ और रोशनी से भरा हुआ...पर ना मैं सजी हुई ना समरी हुई और ना ही किसी के ख्यालों में डूबकर निहार रही थी....मेरे मन में बस एक बेसुधी सी बढ़ रही थी..कितना प्यारा होता था ना वो तुम्हारे साथ वाला चाँद अलग ही प्यार भरा और मुस्कराहट बिखेरता हुआ वैसा ही चाँद देखे हुए एक अरसा बीत गया था और उस बीते हुये अर्सों में ना जाने कितने दफा वो मेरे ख्यालों में आता होता था...लेकिन मैंने कभी अपनी आँखों को खोलकर उसे देखा नहीं और आज उसे ही देखने मैं एक सुध बैठ उसी चाँद को निहारती जा रही थी, 10 मिनट पहले ही अनाउंसमेंट होने लगा था.."बरखेड़ा जाने वाली ट्रैन प्लेटफार्म 01 पर आएगी और आनंदपुर जाने वाली ट्रैन प्लेटफार्म 4 पर मन में कुछ आ लगा था मेरा मन मुझे कचोट रहा था, कह रहा था बरखेड़ा क्यों जाऊँ? अजय तो आनंदपुर रहता है ना ट्रैन आने को थी और हम अभी तक बिना बोले खड़े हुये थे एक दूसरे के मन में चल रही बातों को सहारा देने के लिये...अभी दूसरी बार अनाउंसमेंट हुआ था और आँख भर आई थी पता नहीं क्यों आज ये स्टेशन में मुझे घुटन महसूस होने लगी थी, मुझे लगने लगा था जैसे ये मेरे वजूद का अनाउंसमेंट था, मेरी चाहत और मेरे दिल में पनप रही खामोशियों का था...उसने मेरी तरफ देखा और एक झूठ भरी मुस्कान और कभी ना जाने देने वाली साफ़ साफ़ बात को छुपा कर मेरी तरफ हाथ बढ़ा दिया था. "अच्छा फिर मिलते है.....कभी" कहते हुये आवाज भारी हो गई थी उसकी, और भरी हुई आँखों से मैंने उसकी तरफ देखा नहीं मैं नहीं चाहती थी वो मेरी रोती हुई आँखों को देखे और मैं बढ़ गई थी, प्लेटफार्म 1 की तरफ...एक्सक्यूज़ मी, ये मेरी सीट है बैग रखते हुए मैं बैठ गई थी लेकिन मेरा मन प्लेटफार्म 4 पर खड़ा आनंदपुर जाने वाली ट्रैन का इन्तजार कर रहा था, और आँखे ट्रैन की खिड़कियों के छोटी-छोटी खाली जगहों में से कुछ ढूढ़ने लगी थी, सिग्नल ग्रीन हो चुका था और ट्रैन चलने लगी थी, मेरी आँखें बहने लगी थी उतनी ही रफ़्तार से जितनी रफ़्तार से ट्रैन चलती होती "वो मेरे सामने खड़ा था", मैंने छोड़ दिया था बरखेड़ा जाने वाली ट्रैन को और उस रास्ते को जिसपर मुझे कुछ हासिल नहीं होता और मुझसे लिपट गई थी...
अरे इतनी रात को तुम यहाँ क्या कर रही हो, कहते हुये अजय टेर्रिस पर आ गया था, "मैं मुस्कुरा दी" |
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